कुछ शेर ख्यालों में अटके रहते हैं . कुछ ख्याल दिमाग में बैठ जाते हैं.

Wednesday, 23 November 2011

उम्मीद : अहमद फ़राज़ .

रंजिश  ही  सही  ,दिल  दुखाने  के   लिए  आ .
आ  फिर  मुझे  छोड़  जाने  के  लिए  आ .

कुछ तो मेरे  पिन्दार-ए -मुहब्ब्बत  का भरम  रख 
तू  भी तो  कभी  मुझको  मनाने  के लिए  आ .

पहले  से  मरासिम  न  सही ,फिर  भी  कभी  तो
रस्म-ओ-रह-ए-दुनिया   ही  निभाने  के लिए  आ .

किस  किस  को  बताएँगे   जुदाई   का सबब  हम 
तू  मुझसे  खफा   है तो  ज़माने  के लिए  आ .

इक  उम्र  से हूँ   लज्जत -ए -गिरियाँ   से  भी महरूम 
ऐ  राहत -ए-जाँ  !  मुझको  रुलाने  के लिए  आ .

अब  तक   दिल-ए-खुशफहम   को तुझसे  हैं   उम्मीदें 
ये   आखिरी   शम्मएँ   भी   बुझाने  के लिए  आ.

निराशा : अहमद फराज़ .

हम  चराग -ए -शब  ही  जब  ठहरे तो फिर  क्या सोचना
रात  थी  किसका  मुक़द्दर  और सहर  देखेगा  कौन ?

दुनियादारी : बशीर बद्र .

कोई  हाथ  भी  न मिलाएगा ,जो गले मिलोगे तपाक से 
ये नए मिजाज़ का शहर  है  ;ज़रा  फ़ासले  से  मिला करो.

Sunday, 18 September 2011

तज़ुर्बा .

धूप में चल कर तो देखो,तजुर्बा हो जाएगा,
कद तो बढ़ सकता नहीं,साया बड़ा हो जाएगा.

मुश्किल .

साथ उसके रह सके, न बगैर उसके रह सके 
ये रब्त है चराग का कैसा हवा के साथ.

Thursday, 8 September 2011

ग़ालिब : फ़ायदा.

हमारे  शेर  हैं  अब  सिर्फ  दिल्लगी   के  'असद'
खुला  की  फ़ायदा  अर्ज़ -ए -हुनर  में  ख़ाक  नहीं.

Monday, 5 September 2011

ग़ालिब - अज़ीज़ .

क्यूँकर   उस  बुत  से  रखूँ  जान  अज़ीज़
 क्या  नहीं  है  मुझे  ईमान  अज़ीज़ ?

दिल  से निकला  प न  निकला  दिल से
है तेरे  तीर  का  पैकान  अज़ीज़

ताब  लाये  ही  बनेगी  ‘ग़ालिब ’
बाकिया  सख्त  है और  जान अज़ीज़

Saturday, 3 September 2011

साहिर : आई -गयी बातें .

 उनका ग़म ,उनका तस्सवुर ,उनके शिकवे अब कहाँ ?
 अब तो ये बातें भी ऐ दिल ! हो गयी आयी -गयी .

Thursday, 25 August 2011

ऐसी-वैसी बातें .

ऐसी  -वैसी  बातों से तो अच्छा है खामोश रहो .
 या फिर ऐसी बात कहो जो खामोशी से अच्छी हो.

कारोबार.

अब  मुझसे  कारोबार  की  हालत  न पूछिए 
 आईने  बेचता हूँ अंधों के शहर में.

ग़ालिब : तूफ़ान .

 ग़ालिब  हमे  न  छेड कि फिर जोश-ए- अश्क से  
 बैठे  हैं हम तहय्या-ए-तूफाँ किए हुए .

Wednesday, 24 August 2011

ग़ालिब : नसीब.

हाथों  की  लकीरों  पे  मत  जा  ऐ ग़ालिब  
नसीब  उन  के  भी  होते  हैं  जिन  के हाथ  नहीं  होते .

अफ़सोस .

कोहे - अना की बर्फ में दोनों जमे रहे 
जज़्बों   की तेज़ धूप में न तू पिघला न मैं .