कुछ शेर ख्यालों में अटके रहते हैं . कुछ ख्याल दिमाग में बैठ जाते हैं.

Wednesday 23 November 2011

उम्मीद : अहमद फ़राज़ .

रंजिश  ही  सही  ,दिल  दुखाने  के   लिए  आ .
आ  फिर  मुझे  छोड़  जाने  के  लिए  आ .

कुछ तो मेरे  पिन्दार-ए -मुहब्ब्बत  का भरम  रख 
तू  भी तो  कभी  मुझको  मनाने  के लिए  आ .

पहले  से  मरासिम  न  सही ,फिर  भी  कभी  तो
रस्म-ओ-रह-ए-दुनिया   ही  निभाने  के लिए  आ .

किस  किस  को  बताएँगे   जुदाई   का सबब  हम 
तू  मुझसे  खफा   है तो  ज़माने  के लिए  आ .

इक  उम्र  से हूँ   लज्जत -ए -गिरियाँ   से  भी महरूम 
ऐ  राहत -ए-जाँ  !  मुझको  रुलाने  के लिए  आ .

अब  तक   दिल-ए-खुशफहम   को तुझसे  हैं   उम्मीदें 
ये   आखिरी   शम्मएँ   भी   बुझाने  के लिए  आ.

निराशा : अहमद फराज़ .

हम  चराग -ए -शब  ही  जब  ठहरे तो फिर  क्या सोचना
रात  थी  किसका  मुक़द्दर  और सहर  देखेगा  कौन ?

दुनियादारी : बशीर बद्र .

कोई  हाथ  भी  न मिलाएगा ,जो गले मिलोगे तपाक से 
ये नए मिजाज़ का शहर  है  ;ज़रा  फ़ासले  से  मिला करो.